Saturday, 28 May 2016

ओरल कैंसर (मुँह का कैंसर ) oral cancer-Early detection is the key

दाँतों की बीमारियों का जो प्रकोप आजादी के बाद के समय 40 से 60 प्रतिशत था, वह आज 90 से 95 प्रतिशत तक पहुँच गया है। देश में बहुत सारे डेंटल कॉलेज खुल चुके हैं और लोगों में अवेरनेस भी पहले से ज्यादा हो गई हैं किंतु फिर भी डेंटल अवेरनेस के बेसिक एज्युकेशन की भारी कमी है। इसकी मुख्य वजह खाने-पीने की आदतों में परिवर्तन होना है। ‍डिब्बाबंद भोजन, तंबाकू का प्रचलन, पाउच और विभिन्न तरीके से तंबाकू की जो वैरायटी मिल रही है, उससे नई युवा पीढ़ी ज्यादा ग्रसित है।



मुँह के  किसी भी भाग में कैंसर होता है तो इसे ओरल कैंसर कहा जाता है। मुँह  में होंठ, गाल, लार ग्रंथिया, कोमल व सख्त  तालू, मसूडों, टॉन्सिल, जीभ और जीभ के अंदर का हिस्‍सा आते हैं। इस कैंसर के होने का कारण ओरल कैविटी के भागों में कोशिकाओं की अनियमित वृद्धि होती है। ओरल कैंसर होने का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। 
ओरल कैंसर के कई कारण जैसे, तम्‍बाकू (तंबाकू, सिगरेट, पान मसाला, पान, गुटखा) व शराब का अधिक तथा मुंह की साफ-सफाई ठीक से न करना आदि हैं। इसकी पहचान के लिये डॉक्टर होठों, ओरल कैविटी, मुंह के पीछे, चेहरा और गर्दन में शारीरिक जांच कर किसी प्रकार की सूजन, धब्बे वाले टिश्यू व घाव आदि की जांच करता है। 
कोई भी जख्म या अल्सर आदि मिलने पर उसकी बायोप्सी की जाती है, इसके बाद एंडोस्‍कोपिक जांच, इमेजिंग इन्वेस्टिगेशन्स (कम्प्यूटिड टोमोग्राफी अर्थात सीटी), मैगनेटिक रिसोनेन्स इमेजिंग (एमआरआई) और अल्ट्रासोनोग्राफी आदि की मदद से कैंसर की स्टेजेज का पता लगाया जाता है।
 इसका उपचार हर मरीज के लिए अलग हो सकता है। 
आखिरी स्टेज में आते हैं मरीज : शरीर की दूसरी बीमारियों के उपचार के लिए तो आदमी डॉक्टर के पास चला जाता है, लेकिन मुँह की रक्षा और इलाज के लिए अधिक गंभीरता नहीं बरती जाती। मैंने  देखा है की  कैंसर से ग्रसित होने के बाद ही लोग हमारे पास आते हैं। मैंने देखा है कि प्रायमरी स्टेज पर अपनी जाँच करवाने के लिए आने वाले लोगों का प्रति‍शत एक या दो ही है।जो लोग तंबाकू खाते हैं, वे अपना नियमित चैकअप करवाएँ कि कहीं वे बीमारी से ग्रसित तो नहीं हो गए हैं? 

मुँह के कैंसर का ऑपरेशन बहुत खर्चीला :  तंबाकू खाने वालों को साफ तौर पर बताना चाहता हूँ कि मुख कैंसर का ऑपरेशन बहुत खर्चीला होता है। यहाँ तक कि एक सरकारी अस्पताल में भी इसका खर्च काफी अधिक है। इसके ऑपरेशन में एक लाख रुपए से भी ज्यादा तो लगने ही हैं क्योंकि रेडिएशन होगा। बीमारी के दूसरे खर्चे जैसे कीमो थैरेपी आदि में काफी ज्यादा पैसा खर्च होता है। यहाँ तक कि मुख कैंसर का ऑपरेशन के बाद भी यह शंका बनी रहती है कि यह बीमारी फिर से उभर नहीं आए। ऑपरेशन के बाद मरीज का चेहरा बिगड़ सकता है। 


मुंह के कैंसर का जल्द पता नही चलता। इसलिए मुँह की नियमित जाँच हर 6 माह के अंतराल पर डेंटिस्ट (दाँतों के डॉक्टर ) से अवश्य करायें।  

कुछ तथ्य

दुनिया में ओरल कैंसर के सबसे अधिक मामले भारत में है। 

मुँह में किसी प्रकार के छाले या घाव हों जो ठीक न हो रहे हों या भर न रहे हो।

मुँह में जलन होना। मसूड़ों में सूजन,जलन या  खून निकलना  मुंह से बदबू आना।

बुखार, वजन कम होना या बढ़ना ,निगलने में परेशानी इसके सामान्य लक्ष्ण है।

मुंह के कैंसर का जल्द पता नही चलता। जो व्यक्ति धूम्रपान करते हैं, गुटखा खाते है, या अधिक शराब पीते है उनमें ओरल कैंसर होने की आशंकाअधिक होती है।ओरल कैंसर के करीब 90 प्रतिशत मरीज तंबाकू का सेवन करते हैं।
अधिकतर लोग तंबाकूयुक्त गुटखा मुंह में या दांतों व गाल के बीच में दबाकर रखते हैं। इसके कारण ही कैंसर का खतरा होता है। यदि मुंह के कैंसर का निदान शुरूआत में हो जाये तो इसके इलाज में आसानी होती है। आइए जानें वो कौन से लक्षण है जिससे ओरल कैंसर के होने का पता चलता हैं



 शुरूआती लक्षण एवं संकेत 
  • बिना किसी कारण नियमित बुखार आना।  
  • थकान होना, सामान्‍य गतिविध करने से थक जाना।
  • गर्दन में किसी प्रकार की गांठ का होना।
  • ओरल कैंसर के कारण बिना कारण वजन का कम होता रहता है।
  • मुंह में हो रहे छाले या घाव जो कि भर ना रहे हों।
  • जबड़ों से रक्त का आना या जबड़ों में सूजन होना।
  • मुंह का कोई ऐसा क्षेत्र जिसका रंग बदल रहा हो।
  • गालों में लम्बे समय तक रहने वाली गांठ।
  • बिना किसी कारण लम्बे समय तक गले में सूजन होना।
  • मरीज की आवाज में बदलाव होना।
  • चबाने या निगलने में परेशानी होना।
  • जबड़े या होठों को घुमाने में परेशानी होना।
  • अनायास ही दांतों का गिरना।
  • दांत या जबड़ों के आसपास तेज दर्द होना।
  • मुंह में किसी प्रकार की जलन या दर्द।
  • ऐसा महसूस करना कि आपके गले में कुछ फंसा हुआ है।
  • बदबूदार सांसें, जीभ के कैंसर में सांसों से बदबू आने लगती है।
  • गले में खराश होना भी जीभ कैंसर का लक्षण है।
मुंह के कैंसर की शुरुआत छाले के रूप में होती है, पर यह छाला ऐसा है, जो जल्दी ठीक नहीं होता। इस दौरान गाल व मसूढ़े में सूजन व दर्द रहता है। मुंह खोलने में कठिनाई होती है। गर्दन में गांठ जैसी बनने लगती है। हर समय खराश रहती है। जीभ हिलाने पर तकलीफ होती है। आवाज साफ नहीं निकलती। कुछ रोगियों के दांत अचानक कमजोर हो जाते हैं और हिलने लगते हैं। पहली स्टेज में फाइब्रोसिस का शिकार हो जाता है। यह स्थिति प्री-कैंसर की होती है। इस स्थिति में मरीज का उपचार और निदान संभव है। फाइब्रोसिस के लक्षण यह होते हैं कि मुँह के भीतर कुछ सफेद स्पॉट आ जाते हैं या मुँह में जलन होने लगती है। शुरुआती दौर में छाला या मुंह का छोटा-मोटा अल्सर समझ कर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। यही वजह है कि  इस कैंसर से ग्रसित 70 से 80 प्रतिशत रोगियों का इलाज अंतिम 
स्थिति में पहुंचने पर होता है। 


डायग्नोसिस /निदान /जांच 

  • ओरल कैंसर का पता लगाने की प्रक्रिया एक सामान्य शारीरिक परीक्षण से शुरू होती है। किसी भी प्रकार की असामान्यता के चलते कई बार मुंह की जांच जरूरी हो जाती है। रूटीन चेकअप के लिए शुरुआत में डेंटिस्ट से संपर्क किया जाता है।
  • डॉक्टर के लिए मुंह में किसी भी प्रकार की गांठ और उसके लक्षणों का पता लगाना आसान होता है। अगर अपनी जांच में डॉक्टर को यह पता है कि अमुक गांठ असामान्य है, तो वह आपको आगे की जांच और निदान के लिए निर्देश दे सकता है।
  • दूसरा रास्ता यह है कि रोगी नाक, कान या गले के सर्जन से सम्पर्क करें। इसकी जांच सामान्यत: अस्पतालों में होती है। इस जांच से डॉक्टर को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिलती है।
  • कैंसर की जांच के लिए सर्जन बायोप्सी का भी सहारा लेते हैं। इसमें असामान्य विकास वाले शरीर के भाग से एक छोटा टिश्यू लिया जाता है। इस भाग को जांच के लिए प्रयोगशाला में भेज दिया जाता है। इसकी जांच के बाद ही डॉक्टर यह फैसला कर पाता है कि अमुक लक्षण कैंसर के हैं अथवा नहीं।
  • ओरल कैंसर  के तार किसी और प्रकार के कैंसर से भी जुड़े हो सकते हैं। इसिलए इसकी जांच के लिए लैरिंक्स/गले, वइसोफेंगस और फेफड़ों की जांच भी आवश्यक है। इस जांच के लिए फाइब्रोप्टिकस्कोप की मदद ली जाती है।
  • नासिका नली में रोग का संदेह होने पर एंडोस्को़पी की जाती है। इसमें ली गई बायोप्सील को जांच के लिए पैथोलोजिस्ट के पास भेजा जाता है। अन्य टेस्ट में एक्स-रे, सीटी स्कैन और कुछ अन्य ब्लड टेस्ट शामिल हैं। इसमें इस बात की जांच की जाती है कि बीमारी किस हद तक फैल चुकी है। मरीज के शरीर पर इसका कितना दुष्प्रभाव हो चुका है। इसके साथ ही मरीज के शारीरिक स्थिति की भी जांच की जाती है।

उपचार /इलाज 

स्टेज 0 या स्टेज 1 होने वाला ट्यूमर टिश्यूज में पूरी तरह से हमला नहीं करता जबकि स्टेज 3 या स्टेज 4 का कैंसर पूरी तरह से टिश्यूज पर हमला कर आसपास के टिश्यूज़ को भी प्रभावित करता है। ओरल कैंसर का इलाज इस बात भी निर्भर करता है कि आखिर कैंसर किस रफ्तार से फैल रहा है। ओरल कैंसर की सबसे आम प्रकार की चिकित्सा है सर्जरी, रेडिएशन थेरेपी और कीमोथेरेपी।

सर्जरी

कैंसर की सबसे आम प्रकार की चिकित्सा है ट्यूमर को निकालना या कैंसर प्रभावित क्षेत्र को निकालना। बहुत सी स्थितियों में सीधी सर्जरी मुंह के रास्ते की जाती है। लेकिन कुछ स्थितियों में ट्यूमर गर्दन या जबड़े तक फैल जाता है। ऐसे में सर्जरी का दायरा भी बढ़ जाता है।

जब कैंसर के सेल्स ओरल कैविटी तक या लिम्फ नोड्स तक पहुंच जाते हैं, तो नेक डिसेक्शजन नामक सर्जरी की जाती है जिसमें कैंसर लिम्फ नोड्स को इस आशा में निकाल दिया जाता है कि वो शरीर के दूसरे भाग में ना फैलने पायें।


रेडियेशन थेरेपी

रेडियेशन थेरेपी में अत्यंत शक्तिशाली किरणों की मदद से कैंसर के सेल्स को निकालने का प्रयास किया जाता है। यह छोटे ट्यूमर को निकालने का प्राथमिक उपचार है। इसे सर्जरी के बाद भी किया जा सकता है जिससे कि कैंसर प्रभावित सभी सेल्स को नष्ट कर दिया जाता है।

इस थेरेपी को दर्द, रक्तस्राव, निगलने जैसी समस्या के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, यहां तक कि इसका इस्तेमाल तब भी किया जाता है जबकि यह कैंसर से बचाव ना कर सकें और इस प्रकार की चिकित्सा को पैल्यिटिव केयर भी कहते हैं।

कीमोथेरेपी

कीमोथेरेपी में कैंसर को खत्म करने के लिए उन ड्रग्स का इस्तेमाल होता है जिससे कि सर्जरी से पहले ट्यूमर संकुचित हो जाता है। जब कैंसर प्रभावित क्षेत्र बहुत बड़ा हो जाता है कि इसकी चिकित्सा सर्जरी से नहीं की जा सकती तो ऐसे में कीमोथेरेपी के साथ रेडियेशन थेरेपी भी दी जाती है जिससे कि कैंसर की स्थिति में सुधार हो और ट्यूमर का आकार छोटा हो सके। दो सबसे आम प्रकार से कीमोथेरेपी में इस्तेमाल किये जाने वाले ड्रग्स का नाम है सिस्लैटिन और 5 फ्लोरोयूरासिल (5 एफ यू)।
  • अगर कैंसर का पता शुरूआती दौर में लग जाता है तो इलाज के सफल होने की सम्भावना बढ़ जाती है। ट्यूमर के पहले और दूसरे स्टेज में कैंसर 4 सेन्टीमीटर क्षेत्र से कम होता है और इस स्थिति में कैंसर लिम्फ नोड्स तक नहीं फैल पाता है। इस स्थिति में ओरल कैंसर की चिकित्सा आसानी से सर्जरी के द्वारा या रेडियेशन थेरेपी के द्वारा की जाती है।
  • कैंसर की चिकित्सा के लिए आपका चिकित्सक कौन सी विधि चुनता है यह कैंसर के स्थान पर निर्भर करता है। अगर सर्जरी आपके बोलने या निगलने की स्थिति को प्रभावित नहीं करती है तो ऐसी चिकित्सा की सलाह दी जाती है। रेडियेशन के प्रभाव से मुंह के और गले के स्वस्थ टिश्यूज़ में जलन होने लगती है लेकिन यह कुछ प्रकार के मुँह  कैंसर  के उपचार का अच्छा विकल्प है।
  • ट्यूमर के 3 और 4 स्टेज पर जो कैंसर होते हैं वह अधिक उन्नत और इसमें ट्यूमर बड़े होते हैं और यह मुंह के एक से अधिक भाग में होते हैं या यह लिम्फ नोड्स तक फैले होते हैं। इस प्रकार के कैंसर की चिकित्सा के लिए सामान्यत: अधिक व्यापक सर्जरी और रेडियेशन थेरेपी या कीमोथेरेपी या दोनों ही प्रकार की सर्जरी की जाती है।

ओरल कैंसर के लक्षणों का पता जितनी जल्‍दी चलेगा बीमारी की चिकित्सा उतनी ही आसानी से हो सकेगी। लगभग 90 प्रतिशत लोग जिनमें कि बीमारी का पता समय रहते लग गया है वो बीमारी का पता लगने के 5 साल बाद तक आसानी से जीवन व्यतीत करते हैं।

वो लोग जिनमें कैंसर 3 या 4 स्‍टेज पर होता है और उन्होंने चिकित्सा के सभी सम्भव प्रयास किये हैं उनमें जीने की सम्भावना अगले 5 साल में लगभग 20 से 50 प्रतिशत तक हो जाती है। 

यहां तक कि कुछ छोटे प्रकार के कैंसर भी जिनकी चिकित्सा पूरी तरह से हो गयी है उनमें भी नये प्रकार के मुंह के, सिर के या गर्दन के कैंसर के होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए कैंसर के उपचार के बाद भी स्वयं की निगरानी करना बहुत आवश्यक है।




Sunday, 22 May 2016

फिक्स दाँतों का रहस्य

अपने दाँतों को मुँह में बनाए रखने के लिए लोग न जाने क्या क्या उपाय करते है इन्ही में से एक उपाय होता है आरपीडी( removable partial denture ) को फिक्स करना  अमूमन यह काम झोला छाप या बिना डिग्री धारक तथाकथित डॉक्टर साहब करते हैऔर कभी कभी कुछ डिग्री धारक भी पैसा बनने के लिए कर लेते है  इनकी क्लिनिक एक छोटी टपरी से लेकर बड़ी आलिशान बिल्डिंग तक हो सकती है ये सामान्यतः सभी शहरों में बहुतायत से पाये जाते है आइये कुछ जानकारी इनके बारे में आपके लिए








ये वह लोग होते है जो किसी क्लिनिक पर थोड़े बहुत दिन काम करके वहां से काम सीख लेते है और फिर कुछ समय बाद खुद का क्लिनिक खोल लेते है इनका टारगेट वो लोग होते है जिन्हे डेंटिस्ट के बारे में न के बराबर जानकारी होती है उनकी नजर में डेंटिस्ट का मतलब दाँत उखाड़ने वाला डॉक्टर।

आज इक्कीसवी सदी में डेंटिस्ट दाँत उखाड़ने के बजाय उसे बचाने पर जोर देते है रुट  कैनाल ट्रीटमेंट के द्वारा आज कल डॉक्टर ८० % से ज्यादा दाँतों को उखड़ने से बचा लेते है  पर ये तथाकथित डॉक्टर दाँत को निकाल  कर उसकी जगह नए दाँत को लगाने की सलाह ही देते है क्युकी ये technolgy के मामले में बहुत पिछड़े होते है। हाँ इनकी क्लिनिक में आपको सामान कम ज्यादा मिल सकता है पर ये खुदको कभी एडवांस नहीं करते


एक वाक्ये पर नजर डालते है



इस 56 वर्षीय पुरुष के ऊपर के दाँतों का सेट cd (कम्पलीट डेन्चर ) है जिसमे की पूरी बत्तीसी नकली दाँतो की है जो की सोने से पहले निकाल ली जाती है

नीचे के दांत पूरी तरह से गिरे नहीं थे सिर्फ आगे के २ दांत गिर गए थे तो डॉक्टर ने उसके दो दाँतों को बदलने के लये एक rpd बनाया (सामान्यतः ऐसे डॉक्टर पहले से बने रखे हुए rpd को ही मरीज के दाँतों के ऊपर लगाने की कोशिश करते है और ये उसमें सफल भी रहते है )ये rpd को स्टील के तार एवं कोल्ड क्योर ऐक्रेलिक द्वारा मरीज के मुँह में फिट कर देते  है  अब मरीज़ क्या जाने कि फिक्स दांत किस बला का नाम है, उसे तो बस इतना ही बता दिया जाता है कि इस तरह का फिक्स दांत लगवाने से आप इसे उतारने-चढ़ाने के झंझट से बच जाते हैं 
ये नकली डेंटिस्ट आसपास के स्वस्थ दाँतों एवं मसूडों पर ऐक्रेलिक की मोटी परत चढ़ाकर नकली दांतों को असली दाँतों से जोड़ देते है जो की गलत है इससे स्वस्थ दाँत भी समय के साथ ख़राब होने लगते है मसूड़े गलने लगते है और हड्डी को भी गला देते है जिससे की समय के साथ हड्डी की गुडवत्ता एवं मात्रा घटती जाती है तार के द्वारा नकली दांतों को असली दांतों से फिक्स करने पैर असली दाँत हिलने लगते है 
इन नकली डेंटिस्ट के द्वारा किये गए कामों का खामियाजा डेंटिस्ट को भुगतना पड़ता है क्युकी जब मरीज डेंटिस्ट के पास  पहुंचता है तो स्थिति गम्भीर हो चुकी होती है पूरे शरीर में मसूड़े ही ऐसा हिस्सा है जिसमें खराबी आने के बहुत समय बाद पता चलता है की कोई शिकायत है मसूड़ों में कयुकि अमूमन हम तभी डेंटिस्ट के पास जाते है जब दर्द असहनीय हो और पड़ोस का मेडिकल स्टोर वाला भी इलाज देने में असमर्थ हो वरना तो हम खुद ही डॉक्टर बन जाते है और अपना इलाज स्वम कर लेते है 
ये इलाज कभी कभी बहुत घातक भी साबित  बीमारी घटने की जगह बढ़ जाती है 
इस मरीज के नीचे के दाँतों में जो rpd फिक्स की गयी थी उससे इसके ६ स्वस्थ दांत हिलने लगे जबड़े की हड्डी ३०% तक गल गयी मसूड़ों में  परियोडोंटिटिस हो गया 

इस प्रकार के नकली फिक्स दांतों का प्रकोप झेल रहे बहुत से मरीज़ अकसर आते रहते हैं। इस फिक्स दांत के आसपास वाले हिलते दांतों की वजह से तो लोग आते ही हैं । इस के अलावा बहुत से मरीजों  में इस तरह के फिक्स दांत के आसपास के मसूड़े बहुत बुरी तरह फूल जाते हैं और उन में थोड़ा सा ही हाथ लगने से ही रक्त बहने लगता है। 
 जानकारी ही बचाव है 
अंग्रेजी में कहते है की "dentistry is not  costly neglect is "



























Saturday, 21 May 2016

डेंटल इम्प्लांट्स

डेंटल इम्प्लांट्स  दांतों की एक बनावटी जड़ है जिसका इस्तेमाल दंत चिकित्सा में दांतों को फिर से स्थापित करने के लिए किया जाता है जो देखने में दांत की तरह लगते हैं।







इक्कीसवीं सदी में किए जाने वाले लगभग सभी दंत प्रत्यारोपण देखने में दांतों की एक वास्तविक जड़ की तरह लगते हैं (और इस प्रकार एक "जड़ का रूप" धारण कर लेते हैं) और इन्हें हड्डी के भीतर स्थापित किया जाता है 

 इम्प्लांट में एक टाइटेनियम स्क्रू होता है (जो देखने में दांत की जड़ की तरह लगता है) जिसकी सतह खुरदरी या चिकनी होती है। ज्यादातर डेंटल इम्प्लान्ट्स का निर्माण वाणिज्यिक दृष्टि से शुद्ध टाइटेनियम से होता है

आज भी ज्यादातर इम्प्लान्ट्स का निर्माण वाणिज्यिक दृष्टि से शुद्ध टाइटेनियम (ग्रेड 1 से 4) से होता है लेकिन कुछ इम्प्लांट सिस्टम्स (एंडोपोर्स और नैनो टाईट) का निर्माण टाइटेनियम 6एएल-4वी मिश्र धातु से किया जाता है।

सर्जरी शुरू करने से पहले सबसे ज्यादा अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए इम्प्लान्ट्स को अच्छी तरह से अनुकूल बनाने के लिए हड्डी के आकार और आयामों के साथ-साथ इन्फेरियर एल्वियोलर नर्व या साइनस जैसी महत्वपूर्ण संरचनाओं की पहचान करने के लिए ध्यानपूर्वक और विस्तृत योजना बनाने की जरूरत है। सर्जरी से पहले अक्सर द्विआयामी रेडियोग्राफ जैसे ऑर्थोपैंटोमोग्राफ( ओपीजी ) या पेरिपिकल लिया जाता है। कभी-कभी सीटी स्कैन भी किया जाता है। मामले की योजना बनाने के लिए विशेष 3डी कैड/कैम कंप्यूटर प्रोग्रामों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

आम तौर पर प्रैक्टिशनर (चिकित्सक) इसे ठीक होने के लिए 2 से 6 महीने का समय देते हैं जबकि प्रारंभिक अध्ययनों से पता चलता है कि इम्प्लांट की प्रारंभिक लोडिंग से प्रारंभिक या दीर्घकालीन जटिलताओं में वृद्धि नहीं हो सकती है। अगर इम्प्लांट को बहुत जल्द लोड किया जाता है तो हो सकता है कि इम्प्लांट हिल जाए और विफल हो जाए. एक नए इम्प्लांट को ठीक होने, संभवतः जुड़ने और अंततः स्थापित होने में अठारह महीने लग सकते हैं।

किसी इम्प्लांट को या तो 'हीलिंग एब्यूटमेंट' के रूप में स्थापित किया जाता है तो म्यूकोसा इम्प्लांट को एकीकृत करते समय इसे ढँक लेता है उसके बाद हीलिंग एब्यूटमेंट लगाने के लिए दूसरी सर्जरी को पूरा किया जाता है।
कभी-कभी दो चरणों वाली सर्जरी का चुनाव किया जाता है जब एक समवर्ती बोन ग्राफ्ट को स्थापित किया जाता है या जब एस्थेटिक कारणों से म्यूकोसा पर सर्जरी करने की सम्भावना हो. कुछ इम्प्लांट एकसाथ एक टुकड़े के रूप में होते हैं ताकि कोई हीलिंग एब्यूटमेंट की जरूरत न पड़े.
सावधानीपूर्वक चयनित मामलों में रोगियों को एक ही सर्जरी में इम्प्लांट स्थापित किया जा सकता है और इस प्रक्रिया को "त्वरित लोडिंग" का नाम दिया गया है। ऐसे मामलों में हड्डी के साथ एकीकृत होने के दौरान इम्प्लांट को स्थानांतरित करके काटने की ताकत से बचने के लिए अस्थायी कृत्रिम दांत या क्राउन के आकार को ठीक किया जाता है।

शल्य चिकित्सा में लगने वाला समय

दांत निकालने के बाद डेंटल इम्प्लान्ट्स को स्थापित करने के कई तरीके हैं। ये तरीके इस प्रकार हैं:
  1. दांत निकालने के तुरंत बाद इम्प्लांट को स्थापित करना.
  2. दांत निकालने के कुछ समय बाद थोड़ी देर से डेंटल इम्प्लांट्स  को स्थापित करना (दांत निकालने के 2 सप्ताह से लेकर 3 महीने बाद)
  3. काफी समय बाद डेंटल इम्प्लांट्स  को स्थापित करना (दांत निकालने के 3 महीने या उससे भी अधिक समय बाद).
डेंटल इम्प्लान्ट्स को स्थापित करने की समय-सीमा के अनुसार लोडिंग की परेरिया को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
  1. तत्काल लोडिंग प्रक्रिया.
  2. प्रारंभिक लोडिंग प्रक्रिया (1 सप्ताह से 12 सप्ताह)
  3. विलंबित लोडिंग प्रक्रिया (3 महीने से अधिक)

डेंटल इम्प्लांट्स  की सफलता साईट पर मौजूद हड्डी की गुणवत्ता एवं मात्रा और रोगी की मौखिक स्वच्छता से संबंधित है। आम सहमति है कि इम्प्लांट की सफलता दर लगभग 95% है
इम्प्लांट की सफलता को निर्धारित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक कारक इम्प्लांट स्थिरता की उपलब्धि और रखरखाव है। स्थिरता को एक आईएसक्यू (इम्प्लांट स्टेबिलिटी कोशेंट) मान के रूप में पेश किया जाता है। ज्यादातर सर्जिकल प्रक्रियाओं में दंत प्रत्यारोपण प्लेसमेंट की सफलता में योगदान देने वाले अन्य कारकों में रोगी का सम्पूर्ण सामान्य स्वास्थ्य और सर्जरी के बाद किए जाने वाले देखभाल का अनुपालन शामिल है।

डेंटल इम्प्लांट्स  की विफलता अक्सर सही तरीके से ओसियोइंटीग्रेशन की विफलता से संबंधित होती है। एक डेंटल इम्प्लांट्स  को तब विफल माना जाता है अगर यह नष्ट हो गया हो, हिल गया हो








Tuesday, 10 May 2016

मसूड़ों की बीमारियाँ (Gum Disease)

मसूड़ों की बीमारियाँ क्या हैं ?
मसूडों में खून आना , मसूड़ों में दर्द , मसूड़ों में सूजन , मसूड़ों में संक्रमण (इन्फ़ेक्शन ) आदि होने पर मसूड़ों में बीमारियाँ शुरू होती है ये मुख्यतः दो प्रकार की है जिंजीविटिस एवं परियोडोंटिटिस


जिंजीविटिस क्या है ?
जिंजीविटिस मतलब मसूड़ों में  सूजन ! इसके लक्ष्ण मसूड़ों में सूजन एवं लालपन पहचाने जाते है और ऐसे मसूडों में ब्रश करने पर  खून भी आता है






परिोडोंटिटिस क्या है ?
लंबे समय तक जिंजीविटिस रहने पर वह परिोडोंटिटिस में बदल जाती है ये बीमारी मुख्य रूप से दांत को सहारा प्रदान करने वाले ऊतकों को नष्ट करने का काम करती है जैसे जैसे बीमारी बढ़ती जाती है वैसे वैसे दाँत का सपोर्ट  सिस्टम (सहारा तंत्र ) कमजोर होता जाता है और समय पश्चात दाँत सहारा न होने से गिर जाते है !




कैसे पता लगा सकते है की में इस बीमारी से ग्रसित हूँ या नहीं ?


अधिकतर लोग इस बीमारी के किसी न किसी रूप से प्रभावित रहते है ! अधिकांशतः यह धीरे धीरे असर करती है पर जब यह पूर्ण रूप से उग्र होती है तो गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसे पूर्णतः समाप्त नहीं कर सकते सिर्फ इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है

मसूड़ों में होने वाली बिमारियों का मुख्य कारण क्या है?
मसूड़ों में होने वाली बिमारियों का मुख्य कारण प्लाक है ! यह एक पतली परत है जो की कई प्रकार के बैक्टीरिया हमारे दाँतों के ऊपर रोज बनाते है! प्लाक को प्रतिदिन ब्रश करके साफ़ किया जा सकता है फ्लॉस करके दो दॉँतों के बीच के प्लाक को साफ़ किया जा सकता है ब्रश कैसे करें ?

क्या धूम्रपान(smoking ) करने  से मसूड़ों पर फर्क पड़ता है ?
धूम्रपान करने से मसूड़ों की बीमारियां बढ़ जाती है ज्यादा प्लाक बनने से समस्या और बढ़ती जाती है धूम्रपान करने से रक्त में ऑक्सीजन की सप्लाई घट जाती है और जिससे संक्रमित मसूड़ों की बीमारी ठीक नहीं होती और वह बढ़ती जाती है
मसूड़ों की बीमारी दांत गिरने का सबसे प्रमुख कारण है

मसूड़ों की बीमारी के क्या नुकसान है ?
दुर्भाग्यवश मसूड़ों की बीमारी इतनी धीरे धीरे फैलती है की यह कभी दर्द ही नहीं करती की जिससे आप कभी इसे नोटिस कर पाएं कभी कभी जब बैक्टीरिया अधिक हो जाते है तो मसूड़ों में मवाद/पस भर जाता है जो दर्द करता है और मसूड़ों से बाहर निकलने लगता है अगर इसका इलाज न कराया जाये तो परिणाम गम्भीर हो सकते है

कैसे पता लगा सकते है की मुझे  मसूड़ों की बीमारी है या नहीं ?
प्रथम संकेत ब्रश के दौरान खून आना है मसूड़ों दर्द,सूजन, तथा मुँह से बदबू आना भी प्रमुख कारणों में है



मसूड़ों की  बीमारी का इलाज क्या है?
डेंटिस्ट सबसे पहले आपको स्केलिंग (दाँतों की सफाई ) की  सलाह देंगे जिसमे वह दांतों एवं मसूड़ों के ऊपर से प्लाक एवं टार्टर को हटाते है इसमें दो से तीन सिटिंग (अपॉइंटमेंट ) लगते है

कुछ कुछ मरीजों में रुट स्केलिंग की भी जरूरत होती है

क्या मसूड़ों की बीमारी अन्य बिमारियों को भी जन्म देती है?
हाँ मसूड़ों की बीमारी डायबिटीज ,स्ट्रोक ,ह्रदय रोग ,समय से पहले डिलीवरी आदि तमाम समस्यायों से सम्बंधित है
मुख हमारे शरीर का प्रवेश द्वार है इसे सदैव स्वच्छ एवं स्वस्थ रखें